टूट गए ख्वाब, खुशियां ग़म में बदल गईं… किसानों की बेबसी पर कुदरत भारी पड़ी
रिपोर्ट- मनोज यादव
प्रतापगढ़।
धान की फसल इस बार उम्मीदों से भरी थी— मौसम अनुकूल, मेहनत पूरी, और इंद्रदेव भी बीच-बीच में मेहरबान रहे। लेकिन वक्त ने करवट बदली तो किसानों की सारी मेहनत, सपने और उम्मीदें बाढ़ और बारिश के पानी में बह गईं। खेतों में सुनहरी बालियां अब मिट्टी में लिपटी पड़ी हैं, और किसानों की आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे।
जिस तरह कोई बल्लेबाज शतक से ठीक पहले क्लीन बोल्ड हो जाए, या चिड़िया का बसेरा अचानक तेज हवा से उजड़ जाए, ठीक वैसी ही स्थिति इस वक्त किसानों की है। धान की फसल कटने को तैयार थी, कई किसानों ने जल्दबाजी में फसल काट भी ली थी, लेकिन कुदरत ने उनके अनाज को घर तक पहुंचने की मंजूरी नहीं दी।
दो दिन पहले हुई हल्की बूंदाबांदी कब आफत बन जाएगी, किसी ने नहीं सोचा था। खेतों में पानी भर गया, खड़ी फसलें ज़मीन पर गिर गईं। अब किसान खेतों में खड़े होकर अपनी मेहनत के उजड़े सपनों को देख रहे हैं— लाचार, असहाय और निराश।
इसी बीच, जब पूरा देश भारत रत्न लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती मना रहा था— वही सरदार पटेल जिन्होंने खेड़ा और बारदोली आंदोलन के जरिए किसानों की आवाज़ को बुलंद किया था— तब किसानों की हालत देख सवाल उठता है कि क्या आज की सरकार सच में पटेल के विचारों को आत्मसात कर रही है?
अगर हां, तो किसानों के दर्द को महसूस करते हुए शासन को फसलों का उचित मुआवजा देने का तत्काल फैसला करना चाहिए।
किसानों का कहना है कि उन्होंने तहसील में एप्लीकेशन डाल दी है, अब उम्मीद है कि शासन की मेहरबानी हो जाए और कुछ राहत मिल सके।
संयोग से आज देवउठनी एकादशी भी है— जब भगवान विष्णु चार महीने की निद्रा के बाद सृष्टि संचालन के लिए जागते हैं।
किसानों की दुर्दशा देखकर शायद विष्णु भगवान भी भोलेनाथ से यही कहें —
"मेरे जागने से पहले ये क्या कर दिया आपने?"
अब वक्त है कि शासन किसानों के दर्द को समझे, और जिनकी फसलें घर नहीं पहुंच सकीं— उनके घर तक राहत पहुंचाएं।
0 टिप्पणियाँ